लोभ और मोह के बंधन काटने और अज्ञान प्रलोभन से ऊंचा उठाने पर ही जीवनोद्देश्य पूरा कर सकने वाले-ईश्वरीय प्रयोजन एवं युग पुकार के पूरा कर सकने वाले मार्ग पर चल सकते हैं सो इसके लिये हमें आवश्यक साहस जुटाना ही चाहिए। इतने से कम में कोई व्यक्ति युग-निर्माताओं महा मानवों की पंक्ति में खड़ा नहीं हो सकता। इन चार कसौटियों पर हमें खरा सिद्ध होना ही चाहिए। फौज में भर्ती करते समय नये रंगरुटों की लम्बाई, वजन, सीना तथा निरोगिता जाँची जाती हैं, तब कहीं प्रवेश मिलता है। बड़प्पन की तृष्णा में मरने खपने वाले नर-पशुओं के वर्ग से निकल कर जिन्हें नर-नारायण बनने की उमंग उठे उन्हें उपरोक्त चार प्रयोजनों को अधिकाधिक मात्रा में हृदयंगम करने तथा तद्नुकूल आचरण करने का साहस जुटाना चाहिए। यदि यह परिवर्तन प्रस्तुत जीवनक्रम में न किया जाया तो मनोविनोद के लिए कुछ छुट-पुट भले ही चलता रहे कोई महत्व पूर्ण ऐसा कार्य एवं प्रयोग न बन सकेगा जिससे आत्म-कल्याण और लोक-मंगल की सन्तोष-जनक भूमिका सम्पन्न हो सकें।
युग-परिवर्तन के लिए अपनी चतुर्मुखी योजना हर प्रेमी परिजन को भली प्रकार समझ लेनी चाहिए। (1) प्रचारात्मक (2) संगठनात्मक (3) रचनात्मक (4) संघर्षात्मक अपनी प्रक्रिया क्रमशः इन चार चरणों में विकसित होगी। शुभारम्भ प्रचारात्मक प्रयोग से किया गया है। ज्ञान-यज्ञ या विचार-क्राँति के नाम से इसी प्रयोग को पुकारते हैं। जब तक वस्तु स्थिति विदित न हो, समस्याओं बीमारियों का निदान और कारण मालूम न हो, तब तक उपचार का सही कदम नहीं उठ सकता। अपने प्रचार अभियान में इन दिनों यही सिखाया जा रहा है कि व्यक्ति और समाज की समस्त समस्याओं का एक मात्र कारण मनुष्य की चिन्तन-पद्धति का विकृति हो जाना है। इसे सुधरे बदले बिना किसी समस्या का चिरस्थायी हल न निकलेगा। वस्तु स्थिति है भी यही। भावनात्मक नवनिर्माण ही विश्वव्यापी प्रगति और शान्ति का एक मात्र हल है। इस तथ्य पर सर्वसाधारण का ध्यान जितनी गहराई तक केन्द्रित होगा उतनी ही तत्परता से बौद्धिक क्राँति के सरंजाम जुटेंगे। उनके स्थान पर परिष्कृत प्रचार तन्त्र का निर्माण करना पड़ेगा।
इस दृष्टि से वे सभी कार्य अति महत्वपूर्ण है जिनका आरम्भ युग-निर्माण योजना के अंतर्गत इन दिनों छोटे रूप में आरम्भ किया गया है। वाणी, लेखनी, प्रकाशन, कला, संगीत, अभिनय, शिक्षा, प्रदर्शन, वाक्य पट, समारोह आदि अगणित प्रचार माध्यमों की विशाल परिमाण में आवश्यकता पड़ेगी। जिसके लिए प्रचुर धन-शक्ति की आवश्यकता है। मस्तिष्कों को ढालने के लिये प्रचार तंत्र जितना समर्थ होगा उतना ही सफलता पूर्वक मानवीय चिन्तन एवं क्रिया-कलाप को परिष्कृत किया ज सकेगा। प्रचार तंत्र द्वारा वर्तमान विनाशात्मक स्वरूप को निरस्त करने के लिये उतना ही बड़े सृजनात्मक प्रचार तंत्र को खड़ा करना पड़ेगा। इसके लिये साहित्य-निर्माण उसकी खपत, प्रवचन, संगीत, फिल्म आदि अनेक माध्यमों के विशाल रूप दिया जाना है। इसके लिए प्रचुर परिमाण में धन-शक्ति और जन शक्ति की जरूरत पड़ेगी। इसकी व्यवस्था हम लोग स्वयं बड़ी आसानी से जुटा सकते हैं यदि लोभ और मोह के जंजाल से निकल कर वासना तृष्णा को ठोकर मार कर- निर्वाह भर के लिए प्राप्त पर सन्तोष करके अपनी शारीरिक मानसिक और आर्थिक क्षमता को प्रयुक्त करने लगें।