प्रेममयी भक्ति की प्रक्रिया प्रार्थना में है। प्रेम यदि अपने प्यारे प्रभु से है, उनके प्रति भक्ति सघन है, तो प्रार्थना स्वतः स्फुरित होने लगती है। प्रार्थना के ये स्वर न केवल देह, बल्कि सम्पूर्ण जीवन की आध्यात्मिक चिकित्सा करते हैं। रोग मिटते हैं, शोक दूर होते हैं, संकट कटते हैं, सन्ताप शान्त होते हैं। जिस समय हमारे चारों ओर पीड़ा- परेशानी और विपत्ति के बादल मण्डराने लगते हैं, अन्धकार छा जाता है, कोई साथी नहीं रहता, उस समय यदि हमारे अन्तःकरण में थोड़ा सा भी प्रभु विश्वास जग सका, तो हम बरबस उन्हें पुकार उठते हैं, रक्षा करो भगवन्, तुम्हारे सिवा और कोई नहीं है प्रभु।
और तब हममें से बहुतों का यह अनुभव है कि पुकार लगाते ही, ऐसे विचित्र ढंग से हमारी रक्षा होती है कि जिसकी हम कल्पना तक नहीं कर सकते। भयावह रोग, कठिन शोक, चमत्कारी ढंग से अनायास ही दूर हो जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि भगवान् हमसे दूर नहीं है। वे भक्त वत्सल भगवान् अपने सम्पूर्ण ज्ञान, अनन्त सामर्थ्य, भावभरा प्रेम लिए प्रति पल हमारे साथ है। बस उनसे हृदय का तार जुड़ते ही उनकी सम्पूर्ण शक्ति हमारी रक्षा के लिए, चिकित्सा के लिए, दुःख- विषाद दूर करने के लिए प्रकट हो जाती है। जहाँ उनकी अनन्त शक्ति, अपरिसीम प्रेम को व्यक्त होने का अवसर मिलता है कि काले बादल बिखर जाते हैं, निर्मल प्रकाश छा जाता है। प्यार देने वाले साथी आ पहुँचते हैं और पथ निष्कंटक हो जाता है। हम भी अपनी राह पर चल पड़ते हैं।
किन्तु प्यारे प्रभु से अपने हृदय का यह संयोग स्थायी नहीं हो पाता। प्रार्थना का यह चमत्कार अनुभव करने के बावजूद भी हमारा जीवन भगवद् प्रार्थनामय नहीं बनता। अनुकूल परिस्थिति आते ही हम अपने प्यारे प्रभु को, उनकी भक्ति को भूलने लगते हैं। इससे उपजी प्रार्थना की प्रक्रिया बिसरने लगती है। यहाँ तक कि प्रभु की प्रार्थना ऐसी अद्भुत चमत्कारी है, यह याद भी धीरे- धीरे धुँधली होने लगती है।